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तुभ्ये॒दम॑ग्ने॒ मधु॑मत्तमं॒ वच॒स्तुभ्यं॑ मनी॒षा इ॒यम॑स्तु॒ शं हृ॒दे। त्वां गिरः॒ सिन्धु॑मिवा॒वनी॑र्म॒हीरा पृ॑णन्ति॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tubhyedam agne madhumattamaṁ vacas tubhyam manīṣā iyam astu śaṁ hṛde | tvāṁ giraḥ sindhum ivāvanīr mahīr ā pṛṇanti śavasā vardhayanti ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तुभ्य॑। इ॒दम्। अ॒ग्ने॒। मधु॑मत्ऽतम्। वचः॑। तुभ्य॑म्। म॒नी॒षा। इ॒यम्। अ॒स्तु॒। शम्। हृ॒दे। त्वाम्। गिरः॑। सिन्धु॑म्ऽइव। अ॒वनीः॑। म॒हीः। आ। पृ॒ण॒न्ति॒। शव॑सा। व॒र्धय॑न्ति। च ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:11» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश पवित्र अन्तःकरणवाले विद्यार्थी (तुभ्य) आपके लिये (इदम्) यह (मधुमत्तमम्) अतिशय मधुर आदि गुण से युक्त (वचः) वचन और (तुभ्यम्) आपके लिये (इयम्) यह (मनीषा) बुद्धि (हृदे) हृदय के लिये (शम्) सुखकारक (अस्तु) हो और जो (सिन्धुमिव) समुद्र को जैसे वैसे (अवनीः) रक्षा करनेवाली (महीः) श्रेष्ठ भूमियों के सदृश आदर करने योग्य (गिरः) वाणियाँ (शवसा) बल वा सेवा से (त्वाम्) आपका (आ, पृणन्ति) अच्छे प्रकार पालन करतीं वा विद्याओं को पूर्ण करतीं (वर्धयन्ति, च) और वृद्धि करती हैं, उनका आप ग्रहण कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे विद्यार्थीजनो ! जैसे नदियाँ समुद्र को शोभित करती हैं, वैसे ही विद्या और नम्रता से युक्त वाणियाँ आप लोगों को शोभित करें, जिनके प्रताप से आप लोगों के मुखों से सत्य और सब का हितकारक वचन सर्वदा ही निकले ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! पावकवत्पवित्रान्तःकरण विद्यार्थि तुभ्येदं मधुमत्तमं वचस्तुभ्यमियं मनीषा हृदे शमस्तु याः सिन्धुमिवावनीर्महीर्गिरः शवसा त्वामा पृणन्ति वर्धयन्ति च तास्त्वं गृहाण ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र सुपां सुलुगिति भ्यसो लुक्। (इदम्) (अग्ने) (मधुमत्तमम्) अतिशयेन मधुरादिगुणयुक्तम् (वचः) वचनम् (तुभ्यम्) (मनीषा) प्रज्ञा (इयम्) (अस्तु) (शम्) सुखकरम् (हृदे) हृदयाय (त्वाम्) (गिरः) वाचः (सिन्धुमिव) समुद्रमिव (अवनीः) रक्षिकाः (महीः) श्रेष्ठा धरा इव पूज्याः (आ) (पृणन्ति) पालयन्ति विद्याः पूरयन्ति वा (शवसा) बलेन परिचरणेन वा। शवतीति परिचरणकर्मा। (निघं॰3। 5) अस्मादसुनि कृते रूपसिद्धिः। (वर्धयन्ति) (च) ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्यार्थिनो ! यथा नद्यः सिन्धुमलंकुर्वन्ति तथैव विद्याविनययुक्ता वाचो युष्मानलं कुर्वन्तु यत्प्रतापेन युष्माकं मुखेभ्यः सत्यं सर्वहितकरं वचः सदैव निःसरेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा नद्या समुद्राला सुशोभित करतात. तसे विद्या व नम्रता यांनी युक्त वाणीने तुम्ही सुशोभित व्हा. जिच्या प्रभावाने तुमच्या मुखातून सदैव सत्य व सर्वांसाठी हितकारक वचन बोलले जावे. ॥ ५ ॥